
Best Indore News: देशभर में बिजली को लेकर चल रहे विवादों और आर्थिक दबावों के बीच एक चौंकाने वाला खुलासा सामने आया है। सरकारी अनुदान के भरोसे बिजली आपूर्ति कर रही कंपनियों पर 96 हजार करोड़ रुपये का बकाया है, जो राज्य सरकारों द्वारा समय पर नहीं चुकाया गया। इसका सीधा असर आम जनता की जेब पर पड़ रहा है, क्योंकि बिजली कंपनियां हर साल टैरिफ बढ़ा रही हैं, जिससे घरेलू, वाणिज्यिक और औद्योगिक उपभोक्ताओं की मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही हैं।
क्या है बिजली अनुदान का मुद्दा?
देश में कई राज्य सरकारें जनता को राहत देने के लिए बिजली पर अनुदान (सब्सिडी) देती हैं। यानी बिजली की असली लागत का कुछ हिस्सा सरकार चुकाती है और उपभोक्ता को कम दरों पर बिजली मिलती है। यह नीति गरीबों, किसानों और घरेलू उपभोक्ताओं के लिए फायदेमंद होती है।
लेकिन इस योजना की कमज़ोर कड़ी यह है कि सरकारें बिजली कंपनियों को समय पर भुगतान नहीं करतीं। नतीजा यह होता है कि:
- बिजली कंपनियों का राजस्व घाटा बढ़ता है
- ऑपरेशन और मेंटेनेंस पर खर्च प्रभावित होता है
- कंपनियां टैरिफ बढ़ाकर घाटा जनता से वसूलने लगती हैं
96 हजार करोड़ का बकाया – कौन जिम्मेदार?
ऊर्जा मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक, देशभर में राज्य सरकारों द्वारा बिजली कंपनियों को दिया जाने वाला अनुदान 96,000 करोड़ रुपये तक पहुँच गया है। इनमें पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार जैसे राज्य शीर्ष पर हैं, जहाँ चुनावी वादों के तहत मुफ्त या सस्ती बिजली देने की घोषणा तो की गई, लेकिन उसका वित्तीय प्रबंधन नहीं किया गया।
🔸 “हमसे सस्ती बिजली का वादा किया जाता है, लेकिन जब बकाया नहीं चुकाया जाता तो नुकसान हमें ही भुगतना पड़ता है” – बिजली उपभोक्ता, इंदौर।
क्यों बढ़ा रही हैं कंपनियां हर साल टैरिफ?
बिजली कंपनियों की आय का बड़ा हिस्सा उपभोक्ताओं से आने वाले बिलों से होता है। जब सरकारें अनुदान नहीं देतीं, तो बिजली कंपनियों के पास विकल्प बहुत सीमित होते हैं:
- ब्याज सहित बैंक से ऋण लेना – जो वित्तीय दबाव को और बढ़ाता है
- नए निवेश रोकना – जिससे इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार धीमा पड़ता है
- टैरिफ वृद्धि – जिससे कंपनियां घाटे की भरपाई करती हैं
इसका असर सबसे ज्यादा उन उपभोक्ताओं पर पड़ता है, जो सब्सिडी से बाहर हैं – जैसे मध्यमवर्ग, छोटे दुकानदार, उद्योगपति, और शहरी किसान।
क्या इसका असर ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों पर हो रहा है?
हाँ, ये संकट ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों पर असर डाल रहा है:
क्षेत्र | प्रभाव |
---|---|
ग्रामीण क्षेत्र | फसलों के लिए बिजली महंगी, किसान परेशान |
शहरी क्षेत्र | घरेलू और व्यवसायिक उपभोक्ताओं के बिलों में वृद्धि |
औद्योगिक क्षेत्र | बिजली महंगी होने से उत्पादन लागत बढ़ी |
क्या कहती है नियामक संस्था?
बिजली नियामक आयोग (ERC) ने कई बार चेतावनी दी है कि राज्य सरकारों को:
- समय पर अनुदान की राशि जारी करनी चाहिए
- टैरिफ निर्धारण में राजनीतिक हस्तक्षेप से बचना चाहिए
- बिजली कंपनियों को वित्तीय स्थिरता मिलनी चाहिए
लेकिन कई राज्यों में ये चेतावनियाँ कागज़ों तक सीमित रह गई हैं।
जनता की नाराज़गी बढ़ती जा रही है
लोगों में बिजली बिलों को लेकर आक्रोश है:
बिजली पहले से महंगी थी, अब हर साल 5–10% और बढ़ रही है। हम हर महीने केवल बिजली पर ही 1500-2000 रुपये खर्च करने लगे हैं।” — इंदौर निवासी।
“बिजली बिल का डर अब महीने की योजना बिगाड़ देता है। सब्सिडी का वादा किया लेकिन बिल तो बढ़ता जा रहा है।” — भोपाल निवासी गृहिणी।
समाधान क्या हो सकता है?
- राज्यों को बजटीय प्रावधान के साथ ही सब्सिडी योजना घोषित करनी चाहिए
- अनुदान की राशि समय पर बिजली कंपनियों को ट्रांसफर होनी चाहिए
- बिजली कंपनियों को पारदर्शी ढंग से टैरिफ निर्धारण करने की अनुमति दी जाए
- सौर ऊर्जा और अन्य वैकल्पिक स्रोतों पर निवेश बढ़ाया जाए
- स्मार्ट मीटर और डिजिटल बिलिंग से नुकसान में कमी लाई जाए
बिजली जैसी बुनियादी आवश्यकता के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता। यदि सरकारें सस्ती या मुफ्त बिजली का वादा करती हैं, तो उसे पूरी वित्तीय जिम्मेदारी के साथ निभाना चाहिए। अनुदान समय पर न मिलने की स्थिति में जनता पर ही बोझ डलता है—जो न केवल आर्थिक दृष्टि से अनुचित है, बल्कि राजनीतिक व सामाजिक दृष्टि से भी गलत है।
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